“ राष्ट्रप्रेम का युग चारण: दिनकर ”


“ राष्ट्रप्रेम का युग चारण: दिनकर ”
डॉ.राजेन्द्र कुमार सिंघवी

“छायावादोत्तर काल के अग्रणी कवि रामधारीसिंह ‘दिनकर’, जिनके काव्य में राष्ट्र-प्रेम की पूजा है, राष्ट्रीय संस्कृति की पुनः उन्नयन की अभिलाषा है, सामाजिक चेतना की युगाभिव्यक्ति है तथा ओज और प्रसाद का मिश्रण है । उस विराट व्यक्तित्व का महत्त्व न केवल हिन्दी साहित्य में बल्कि भारतीय जन मानस के हृदय की मुखर अभिव्यक्ति में स्पष्ट परिलक्षित होती है । 

‘दिनकर’ का जन्म 23 सितम्बर, 1908 को मुंगेर (बिहार) जिले के सिमरिया घाट स्थान पर हुआ । पटना विश्वविद्यालय से इतिहास में बी.ए. ऑनर्स की परीक्षा उत्तीर्ण की । श्री गुप्त जी के इतिवृत प्रधान काव्य से प्रेरित हुए तथा श्री माखन लाल चतुर्वेदी की कविताओं से राष्ट्रीयता की प्रेरणा ली । 1935 में बिहार प्रांतीय साहित्य का प्रतिनिधित्व किया । संसद में  हिन्दी  के सजग प्रहरी के रूप में अपनी सेवाएँ अर्पित की । श्री गुप्त जी के बाद आपको राष्ट्रकवि के रूप में जाना गया । 

“दिनकर के काव्य का प्रथम चरण उनकी ओजस्वी कविता का है जिसमें उनके हृदय की आग दिखाई देती है । ‘रेणुका’ कृति में उनकी भावना इसी रूप में अभिव्यक्त हुई है । उनके काव्य का दूसरा चरण गर्जना के स्वरों से भरा हुआ है तथा विरोचित भावनाओं का मुखर प्रस्फुटन हुआ है । ‘हुँकार’ कृति इसी श्रेणी में सम्मिलित की जा सकती है । दिनकर के काव्य का तृतीय चरण शृंगार से ओत-प्रोत है । ‘उर्वशी’ और ‘रसवन्ती’ कृतियों में शृंगारी और कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति हुई है । उनके काव्य के अन्तिम चरण में शौर्य, करूणा, क्षमा और शृंगार की मिश्रित प्रवृत्ति अभिव्यक्त हुई है जिसमें सभी यक्ष प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत किया है। “कुरूक्षेत्र” इस चरण का उदाहरण है । अतः दिनकर का काव्य निश्चित रेखाक्रम में हुआ है । 

दिनकर के काव्य में अनेक प्रवृत्तियों का समागम हुआ है-

“जब स्वाभिमान लांछित होता है तब पौरूष काम आता है । ऐसे ही ओजस्वी भावों की व्यंजना ‘अनल किरीट’ में हुई है- 

“लेना अनल किरीट ओ भाल पर आशिक होने वाले”
कालकूट पहले पी लेना, सुधा बीज बोने वाले ।”

दिनकर अहिंसा को शक्ति और पौरूष के साथ स्वीकार करता है । उनके अनुसार त्याग करूणा और क्षमा शूरवीरों को शोभा देती है और अपमान, शोषण को सहन करना कायरता है- 

“ छोड़ प्रति वैर पीते मूक अपमान वे ही ;
जिनमें न शेष शूरता का वह्मिताप है ।।”

प्रतिशोध भावना को दिनकर ने मानव का जन्म-सिद्ध अधिकार माना है, वह इसकी महत्ता प्रतिपादित करते हुए लिखते है-

“ चोट खा परन्तु, जब सिंह उठता है जाग;
उठता कराल प्रतिशोध हो प्रबुद्ध है । 
पुण्य खिलता है, चन्द्रहास की विभा में तब,
पौरूष की जागृति कहाती धर्मयुद्ध है ।।”

क्रांति का कर्णधार और पौरूष का प्रतिबिम्ब कवि दिनकर के काव्य का एक स्वर और भी है जो छायावाद से प्रभावित होकर सौन्दर्य से आप्लावित हुआ है । ‘रसवन्ती’ कृति में नारी का नैसर्गिक सौन्दर्य, अलौकिक व्यक्तित्व से युक्त है, वह विधि की अम्लान कल्पना है- 

“खिली भू पर जबसे तुम नारि,
कल्पना री विधि की अम्लान ।
-  -  -  -
हुआ व्याकुल सारा संसार,
किया चाहा माया का मोल ।”

शृंगार चित्रण में दिनकर ने रीतिकालीन कवियों की तरह नारी को विलास का साधन नहीं बल्कि प्रेम और पूजा का विषय माना है- 

“दृष्टि का जो पेय है,
वह रक्त का भोजन नहीं ।
रूप की आराधना का,
मार्ग आलिंगन नहीं ।।

“ अतः दिनकर का काव्य ओज, पौरूष और क्रांति से अनुरक्त होते हुए भी सौन्दर्य बोध से विरक्त नहीं है । शौर्य और शृंगार का मधुर समागम उनके काव्य की विशेषता है । राष्ट्रीयता से भरा हुआ उनका काव्य स्वाधीनता संग्राम में प्रेरणा का स्रोत रहा है इसी कारण से वह युग चारण है और जनता के हृदय की अभिव्यक्ति है । दिनकर का काव्य आज भी प्रासंगिक है, अजस्र प्रेरणा का स्रोत है ।” 

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