''किसी खास विचारधारा से कवि का लगाव एक अच्छी बात हो सकती है, लेकिन अनिवार्य नहीं । ''- डॉ. सत्यनारायण व्यास


   “ वह यात्रा जो कभी समाप्त नहीं होगी । ”

डॉ. सत्यनारायण व्यास का प्रथम कविता संग्रह ‘मेरी असमाप्त यात्रा’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ । उक्त शीर्षक कवि के निरन्तर गतिशील व्यक्तित्व को उजागर करता है, जहाँ सृजन कभी समाप्त नहीं होगा । प्रस्तुत कृति में 44 कविताएँ संगृहीत हैं, जो सन् अस्सी के बाद की हैं । इन कविताओं की खासियत यह है कि ये विचारधारा की अपेक्षा मनुष्य को केन्द्र में रखकर लिखी गई हैं । स्वयं डॉ. व्यास का मानना है कि किसी खास विचारधारा से कवि का लगाव एक अच्छी बात हो सकती है, लेकिन अनिवार्य नहीं । विचारधारा पर सवारी गाँठना एक बात है, तो उसी का वाहन बन जाना दूसरी । यह कथन प्रमाणित करता है कि कोई दूसरा पक्ष भी आपकी अन्तःयात्रा का साक्षी हो सकता है, अतः पूर्वाग्रहों से विमुक्त हो जाना चाहिए ।इस कृति की प्रमुख रचनाएँ हैं- वेदना का भीलनृत्य, शब्द के प्रति, सबसे बड़ा सत्य, शिव की बारात, आत्म चिंतन, कौन सी माँ, चिल्लाओ मत, सर्च लाइट, महान पाठक, मनुष्य के पक्ष में, असमाप्त यात्रा आदि । विषयों की विविधता से संपृक्त इन रचनाओं को पाठक की दृष्टि से व्यक्त करना आवश्यक समझता हूँ-

जिसका क्षरण नहीं होता, उसे अक्षर कहा गया है अतः अक्षर ईश्वर के समतुल्य है । अक्षर से शब्द बनते हैं और हमारे शास्त्रों में शब्द को ब्रह्म कहा गया है । जब यही ब्रह्म कवि के कंठ में उतरता है तो वह कभी फूल तो कभी अंगार नजर आता है । कवि अपनी श्रद्धा एवं कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए शब्द को संबोधित करता है-

शब्द

कभी तू कंठ से झरता है निर्झर-सा
तो कभी फूल-सा खिलता है
तो कभी धधकता है,
क्रांति के अंगार पथ-सा
कितना बहुरंगी शरीर तेरा ।

(शब्द के प्रति)

असंतोष, अस्वीकृति और विद्रोह का स्वर साठोत्तरी कविता का केन्द्रीय स्वर रहा है, कारण स्पष्ट है कि आजादी के बाद हमारे स्वप्न नष्ट हो गए । जहाँ अराजकता को ‘व्यवस्था’ का नाम दिया जाये, वैसी राजनीति  में विचारशील प्राणी

आत्मग्लानि महसूस करता है, यथा-
गिद्धों को माँस की रखवाली सौंपना
मेरे देश का हो गया है स्वभाव,
अराजकता का अर्थ
अब हो गया है “व्यवस्था” ।
-  -  -

सत्य, अहिंसा और मानवता की सुन्दर परियाँ
विश्व के झरोखों पर बैठीं
हम पर थू-थू करती है ।

                                    (शिव की बारात)

कवि की द्दष्टि भ्रष्ट राजनीतिक तंत्र पर बहुत तीखी है । जब आम जिन्दगी इस विडम्बना को अपनी नियति मान ले और उसकी आवाज को दबाने का प्रयास किया जाता है, तब संवेदनशील रचनाकार का आक्रोश व्यंग्य की वृष्टि करता है-

मेरे भूखे-प्यासे देशवासियों,
इतना चिल्लाते क्यों हो?
कुछ बरसों इन्तजार करो-
पीने का पानी आता-आता ही आएगा
और रोटी?
रोटी तो तुम्हें
तुम्हारा पुनर्जन्म ही दिला पाएगा ।

                                    (चिल्लाओ मत)

शोषण की जब पराकाष्ठा हो, मानव स्वार्थी हो गया हो, अधिकार लोलुपता के दंभ में इंसानियत भूल गया हो । तब कवि की ‘सर्चलाइट’ ऐसे शोषकों को ढूँढ़ने निकल पड़ती है और आक्रोश का लावा फूट पड़ता है । कवि की उक्त पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-

बहुमंजिली इमारत के वातानुकूल कमरे में
दो-दो हजार की नरम चेयर्स पर बैठे मवेशी
घास नहीं, मेहनत चबाते हैं,
पसीना पीते हैं,
और फिर पैसा हंगते हैं ।
वैसे कोई ज्यादा नहीं,
करोड़पति हों या अरबपति
हर देश में मुट्ठी भर मंगते हैं ।

                                    (सर्चलाइट)

आधुनिक मानव का व्यक्तित्व देवता-सा नजर आता है, किंतु कर्तृत्व जानवर-सा । इन दोनों के बीच उसका मुनष्य होना गायब हो गया है । वस्तुतः देवता बनने के नाटक में उतना ही पशुवत् व्यवहार करता है और सही मायने में मनुष्य भी नहीं रह पाता । कवि उसी ‘मनुष्यता’ को ढूँढ़ने की बात कहता हुआ एक शाश्वत सत्य को उजागर करता है-

हमारे बढ़ते नाखून साक्षी हैं
उस संक्रमण के
जो भेड़िए से मनुष्य होने की
भयानक प्रक्रिया है
खून में छिपा भेड़िया
नाखून बढ़ाता है
किंतु मनुष्य का सजग विवके
बराबर उसे काटता जाता है ।

                                    (मनुष्य के पक्ष में)

पदार्थवादी दुनिया के व्यामोह में हमने अपना मौलिक चरित्र खो दिया है, भीतर का खोखलापन हमें दिखाई नहीं देता । अतीत की स्वर्णिम यादों को भी आधुनिकता की वीभत्स आकांक्षाओं में विलुप्त कर दिया है । ‘माँ’ जैसा चरित्र किस तरह आधुनिकता का शिकार हुआ है, द्रष्टव्य है-

हाथ में सिगरेट लिए
टाइट-सी जिन्स पहने
आधुनिक ‘मदर’ को देख
जाने क्यों मुझे-
हर दो मिनिट बाद
सिर का आँचल संभालती
वह माँ याद आ जाती है ।

आधुनिक बुद्धिजीवी मन महत्त्वाकांक्षा का मोती पाने हेतु स्वार्थों की सीपी तैयार करता है। वह समाज की विसंगतियों को मौन होकर स्वीकार कर लेता है, तब उसका सृजनधर्मी हृदय विविध पक्षों में सामंजस्य की गणना करता स्वयं निर्वासन भोगता है । जीवन में उत्कृष्टता को प्राप्त करने की लालसा में पीड़ा को स्वीकारता उसका बेचैन हृदय अभिव्यक्ति देता है-

अभिव्यक्ति की ब्रह्मराक्षस से
निर्णायक युद्ध लड़ने को
लाश के भीतर अपनी
रीढ़ की हड्डी ढूँढ़ता हूँ
ताकि शब्दों का वज्र निर्मित हो ।

                                    (वेदना का भील नृत्य)

मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवी मन अपने दायित्व के प्रति सदैव सजग रहता है, वह प्रतिरोध की आकांक्षा भी रखता है, किंतु व्यवस्थाओं ओर बंधनों से मुक्त नहीं हो पाता । परिणामस्वरूप निर्णायक सफलता भी प्राप्त नहीं कर पाता । तब उसका निराश मन अवचेतन की कुंठा से बाहर आने का असफल प्रयास करता है और यथार्थ को स्वीकार करते हुए कहता है-

उल्लू भी ज्यादा खुशनसीब है,
जो अमावस की स्याह रात में
अपना लक्ष्य ढूँढ़ लेता है ।
-   -  -

हम तो बस खाते हैं, पीते हैं, सोते हैं,
और गाते हैं सपने में,
चन्द गीत मादा के नाम ।
और अंत में-
मटके-सा सर लटका अरथी पर
मरघट तक चले जाते हैं ।

                                    (असमाप्त यात्रा)

समग्रतः डॉ व्यास की ‘मेरी असमाप्त यात्रा’ कविता-संग्रह में आक्रोश, सामाजिक बदलाव की चाहत तथा विसंगतियों पर प्रहार के साथ जीवन के प्रति आस्थावादी द्दष्टि विद्यमान है । कविताओं में कहीं ‘मुक्तिबोध’ का आदर्शवादी मन स्वयं को धिक्कारता है, तो कहीं ‘धूमिल’ की तरह राजनीतिक चक्रव्यूह को स्वयं भेदन करता हुआ अभिमन्यु की तरह प्रकट होता है । कविताओं में विचारधारा का अनुसरण नजर नहीं आता, बल्कि डॉ. व्यास के विचार ही धारानुमा प्रतीत होते हैं । उक्त कृति में मानव-मन से लेकर समाज के विशाल फलक पर व्याप्त विसंगति को उजागर कर समाधान देने का प्रयास हुआ है अतः यह यात्रा कभी समाप्त नहीं होगी, ऐसी आशा है ।
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'असमाप्त यात्रा' के लेखक 


डा. सत्यनारायण व्यास,जिनकी पहचान ख़ास तौर पर आलोचक और कवि के रूप में रही है.मूल रूप से राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में हमीरगढ़ के वासी पिछले कई सालों से चित्तौड़गढ़ में रहते हैं.जीवनभर में तेरह नौकरिया की.घुमक्कड़ी का पूरा आनंद.कोलेज शिक्षा से हिंदी प्राध्यापक पद से सेवानिवृत.आचार्य हजारी प्रसाद द्विबेदी पर पीएच.डी.,दो कविता संग्रह,एक प्रबंध काव्य,पीएच.दी. शोध पुस्तक रूप में प्रकाशित है.इसके अलावा कई पांडुलिपियाँ छपने की प्रतीक्षा में.कई विद्यार्थियों के शोध प्रशिक्षक रहे.अपनी बेबाक टिप्पणियों और सदैव व्यवस्था विरोध के लिए जाने जाते हैं.कई सेमिनारों में पढ़े/सुने गए हैं.आकाशवाणी से लगातार प्रसारित हुए हैं.उनकी मुख्य कविताओं में शंकराचार्य का माँ से संवाद, कथा हमारे उस घर की सीता की अग्नि परीक्षा हैं.उनका संपर्क पता 29,नीलकंठ कालोनी, मोबाइल- 09461392200 चित्तौड़गढ़, राजस्थान उनका ब्लॉग लिंक है .
पुस्तक समीक्षक  का परिचय :-

डॉ.राजेन्द्र कुमार सिंघवी
(अकादमिक तौर पर डाईट, चित्तौडगढ़ में वरिष्ठ व्याख्याता हैं,आचार्य तुलसी के कृतित्व और व्यक्तित्व पर ही शोध भी किया है.निम्बाहेडा के छोटे से गाँव बिनोता से निकल कर लगातार नवाचारी वृति के चलते यहाँ तक पहुंचे हैं.शैक्षिक अनुसंधानों में विशेष रूचि रही है.)

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