“ आचार्य तुलसी के काव्य में भारतीय सांस्कृतिक मूल्य ”


“ आचार्य तुलसी के काव्य में भारतीय सांस्कृतिक मूल्य ”

संस्कृति किसी भी राष्ट्र की उत्कृष्टतम निधि होती है । राष्ट्र-विशेष का जीवन-स्मरण, उसकी उन्नति-अवनति, प्रतिष्ठा आदि तथ्य उसकी संस्कृति पर ही आधारित रहते हैं । जिस राष्ट्र की संस्कृति जितनी उदात्त होती है, वह राष्ट्र उतना ही गौरवशाली बनता है । डॉ.रामजी उपाध्याय के शब्द हैं “ संस्कृति वह प्रक्रिया है जिससे किसी देश के सर्वसाधारण का व्यक्तित्व निष्पन्न होता है । इससे मानव समाज की उस स्थिति का बोध होता है, जिससे उसे सुधारा हुआ, ऊँचा, सभ्य आदि आभूषणों से आभूषित किया जाता है ।”1 

आधुनिक परिवेश निःसंदेह भौतिकवादी रंगत से प्रभावित है, परिणाम-स्वरूप हिन्दी साहित्य की दिशा भी पदार्थवाद की ओर गमन करती प्रतीत होती है । संत्रांस, आत्मकेन्द्र, व्यष्टिवादिता, निराशा, अवचेतन मन के क्रिया-कलाप एवं नकारात्मक दृष्टिकोण पर आधारित विषय साहित्यिक परिधि में सम्मिलित हो रहे है । परन्तु सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य में उक्त पाश्चात्य-प्रभाव से युक्त चिन्तन का प्रभाव क्षणिक है, क्योंकि दूसरी ओर हिन्दी-साहित्य में भारतीय चिन्तन की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक चरित्र रूपी धाराएँ भी निर्बाध गति से प्रवाहित हो रही है, जिसका श्रेय संत साहित्यकारों को दिया जा सकता है ।

इस दृष्टि से भारतीय चिन्तन को हिन्दी-साहित्य में प्रसारित करने एवं उसे जीवन-दृष्टि का अंग बनाने में जैन धर्म एवं उसमें रचित साहित्य का विशेष योगदान रहा है । जिसका प्रामाणिक, साहित्यिक एवं गरिमायुक्त रूप वर्तमान में हिन्दी-साहित्य की निधी है । वस्तुतः जैन साहित्य में सत्यं, शिवं व सुन्दरं को रूपायित करने वाले विषय-वस्तुओं को आधारभूमि में रखा, गिरते सांस्कृतिक मूल्यों को पुनः प्रतिस्थापित किया, जीवन मूल्यों को साहित्य के माध्यम से लोक-जीवन में संचारित किया तथा हिन्दी साहित्य के कोष को निरंतर समृद्ध किया है । इस कार्य में जैनयतियों, मुनियों और आचार्यो की विशेष भूमिका रही । 

वर्तमान में जैन धर्म में मूल रूप से दो सम्प्रदाय-श्वेताम्बर और दिगम्बर विद्यमान है । जैन धर्म के श्वेताम्बर सम्प्रदाय अन्तर्गत ‘तेरापंथ’ शाखा ने आचार्य भिक्षु, जयाचार्य, आचार्य तुलसी एवं आचार्य महाप्रज्ञ जैसे यशस्वी मनीषियों को जन्म दिया व विपुल मात्रा में साहित्य-वैभव प्रदान किया । यह साहित्य केवल अध्यात्म केन्द्रित ही नहीं वरन् साहित्यिक मूल्यों का भी निर्वहन करता है ।

‘तेरापंथ’ के नवम् आचार्य ‘श्री तुलसी’ हुए । वे प्रकृति-प्रदत्त मेधा, विराट् कवित्व-शक्ति, दार्शनिक विद्वता, संगीत मर्मज्ञता, कुशल प्रवचन शैली एवं साहित्य-साधना के बल पर साहित्य तथा अध्यात्म जगत् में समान रूप से अभिनन्दनीय बने । वे बहुभाषाविद् तथा षड्दर्शन ज्ञाता थे । उन्होंने संस्कृत, प्राकृत, अंग्रेजी, हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा में प्रचुर मात्रा में साहित्य लिखा । केवल हिन्दी साहित्य में ही गद्य एवं पद्य की विधि विधाओं में शताधिक ग्रंथो की रचना कर उन्होंने अपना अद्वितीय योगदान हिन्दी-संसार को प्रदान कर दिया । 
आचार्य तुलसी इस दृष्टि से सृजन् के साक्षात् बिम्ब थे । उनका काव्य प्रतिभा, निपुणता और अभ्यास से ओत-प्रोत है, जिसमें वास्तव में हृदय मुक्त होकर रस दशा को प्राप्त करना प्रतीत होता है । आचार्य तुलसी रचित प्रमुख काव्य-कृतियों को विषय-वस्तु के आधार पर चार भागों में विभाजित किया जा सकता है-

(1) चरित्र काव्य: कालूयशोविलास, डालिम चरित्र, मगन चरित्र, माणक-महिमा, माँ 
    वदना, सेवाभावी ।
(2) पौराणिक काव्य: अग्नि परीक्षा, भरत-मुक्ति ।
(3) नीति काव्य: तेरापंथ-प्रबोध, नन्दन-निकुंज, शासन-सुषमा, श्रावक-सम्बोध,
    सम्बोध, सोमरस, सुधारस, आषाढ़भूति ।
(4) आख्यान-व्याख्यान काव्य: चन्दन की चुटकी भली, मैं तिरूं म्हारी नाव तिरै 
   इत्यादि।

आचार्य तुलसी भारतीय संस्कृति के गौरव से अभिभूत थे । उनका मानना था कि जिस राष्ट्र ने अपनी संस्कृति को भुला दिया, वह राष्ट्र जीवित या जाग्रत राष्ट्र नहीं हो सकता । देशवासियों को उन्होंने सदैव विराट् सांस्कृतिक मूल्यों से अवगत कराया तथा उसके संरक्षण पर जोर दिया । वे सांस्कृतिक उद्देश्य की पूर्ति हेतु शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्त्यिों के विकास पर जोर देते थे । 

भारतीय संस्कृति के गौरव को व्यक्त करने वाली आचार्य तुलसी की उक्त पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं- “जो लोग पदार्थ में विश्वास करते हैं, वे असहिष्णु हो सकते हैं । जो लोग शस्त्र-शक्ति में विश्वास करते हैं, वे निरपेक्ष हो सकते हैं । जो लोग अपने लिए दूसरों के अनिष्ट को क्षम्य मानते है, वे अनुदार हो सकते हैं । परन्तु भारतीय संस्कृति की यह विलक्षणता रही है कि उसने पदार्थ को आवश्यक माना एवं शस्त्र शक्ति का सहारा लिया पर उसमें त्राण नहीं देखा । अपने लिये दूसरों का अनिष्ट हो गया, पर उसे क्षमय्य नहीं माना । यहाँ जीवन का लक्ष्य विलासिता नहीं आत्म-साधना रहा । लोभ-लालसा नहीं, त्याग तितिक्षा रहा ।”2

आचार्य तुलसीकृत काव्य में भारतीय सांस्कृतिक तत्वों का पर्याप्त मात्रा में अनुशीलन हुआ है । उनके काव्य में भारतीय अतीत के गौरव का गुणगान हुआ है, विराट् भारतीय चिन्तन को समर्थन दिया है, सांस्कृतिक मूल्यों को संरक्षण प्रदान किया है, संस्कार-निर्माण पर बल दिया है, आदर्श जीवनशैली का परिचय दिया है तथा समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाने की सलाह दी है ।3 

ये समस्त बिन्दु हमारे सांस्कृतिक विकास के कारक रहे है, इनका संक्षिप्त विवेचन यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है-

आचार्य तुलसी का चिन्तन है कि भारतीय संस्कृति सबसे प्राचीन ही नहीं, समृद्ध भी है, अतः किसी भी राष्ट्रीय समस्या का हल हमें अपने सांस्कृतिक तत्वों के द्वारा ही खोजना चाहिए क्योंकि हमारा अतीत अत्यन्त वैभवशाली रहा है । उन्होंने कहा- “हिन्दू संस्कारों की जमीन छोड़कर आयातित संस्कृति के आसमान में उड़ने वाले लोग दो-चार लम्बी उड़ानों के बाद जब अपनी जमीन पर उतरने या चढ़ने का सपना देखेगें, तो उनके सामने अनेक प्रकार की मुसीबतें खड़ी हो जाएँगी ।”4 

अपने काव्य-साहित्य में उन्होंने भारतीय अतीत के वैभवशाली गौरव का गुणगान किया। अनुशासित जीवन से युक्त, अध्यात्म की समृद्धि के साथ भारत विश्व का पथ-प्रदर्शन बना । उक्त विचार निम्न पंक्तियों में दर्शनीय हैं-

जिस विद्या से भारत ने आध्यात्मिक गौरव पाया,
अखिल विश्व का एकमात्र जो पथ-दर्शक कहलाया,
पा अनुशासन की छाया ।5

भारत वर्ष महापुरूषों की तपोभूमि रही है । यहाँ पर कई महापुरूषों का जन्म हुआ है । इसका गौरव वर्णन उक्त पंक्तियों में दृष्टव्य है-

प्राप्त हुआ है महापुरूषों की, जन्मभूमि बनने का श्रेय ।
जिसकी अवनि में अवतरित, हो गए हैं अगणित श्रद्धेय ।
अनुपम नैसर्गिक सुषमा से, जिसका गौरव निखर रहा ।
प्रकृति-नटी के कौशल से, सौन्दर्य सहज ही बिखर रहा ।6

आचार्य तुलसी ने अपने साहित्य के माध्यम से भारतीय जनता के सोए आत्म-विश्वास एवं अध्यात्म शक्ति को जगाने का उपक्रम किया । वे पाश्चात्य-संस्कृति की अच्छाई ग्रहण करने के विरोधी नहीं थे, परन्तु सभी बातों में उनका अनुकरण राष्ट्र के हित में नहीं मानते थे । भारतीयों को संयम और समता का संदेश देते हुए उन्होंने कहा, “जब तक मानव संयम की आर नहीं मुड़ेगा, पिशाचिनी की तरह मुँह बाँए खड़ी विषम समस्याएँ उसका पीछा नहीं छोड़ेगी ।”7

कवि का दृष्टिकोण भारतीय-चिन्तन के अनुरूप विश्व बंधुत्व पर आधारित रहा । संकीर्ण वृत्ति से दूर रहकर समतामयी जीवन की अभिलाषा और समस्याओं का हल अनेकान्तवादी दृष्टिकोण में तलाश करने का संदेश देते हुए उन्होंने कहा-

विश्व-बंधुत्व, समता, सहअस्तित्व धर्म ने गाया,
फिर किसने उसमें संकीर्ण-वृति का विष फैलाया,
अनेकांत को समझ करें हम, संयम का संधान ।8

समता रस में भरा हुआ भारतीय चिन्तन का समर्थन करते हुए कवि के आध्यात्ममय निर्मल-जीवन जीने की प्रेरणा दी है, उक्त पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-

समता रस में पीना हो, लहलीना भीना भव स्यूं,
दृढ़सीना अध्यात्म रमण रै हित ।
झंकृत अंतर हो, स्वर झीणा शिव अनुराग में,
ते लाखीणा लहसी विमल निकेत ।9

सत्य, अहिंसा, क्षमा, सहिष्णुता, संयम इत्यादि हमारे सांस्कृतिक मूल्य रहे हैं । उन्होंने भारतीय संस्कृति को विदेशी लोगों से उतना खतरा नहीं, जितना इस संस्कृति में रहने वालों से है । उन्होंने भारतीय संस्कृति को प्रतिपादित करते हुए कहा- ‘अणुव्रतों के द्वारा अणुबमों की भयंकरता का विनाश हो, अभय के द्वारा भय का विनाश हो, त्याग के द्वारा संग्रह का ह्रास हो, ये घोष सभ्यता ओर संस्कृति के प्रतीत बनें, तभी जीवन की दिशा बदल सकती है ।10

भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों में क्षमा, धर्म, शास्त्र एवं अध्यात्मवाणी का महत्वपूर्ण स्थान है। इसे जीवन में उतारने का संदेश और समरसता-मूलक जीवन-पद्धति को अपनाने का आग्रह किया, यथा-

क्षमा-खड्ग कर धर सुभग,
धर्म-ढाल दृढ़ डाल 
शास्त्र-शस्त्र जिन-वच-कवच,
प्रत्याक्रमण कराल ।11

आचार और विचार की रेखाएँ बनती हैं और मिटती हैं । जो बनता है वह मिटता भी है, किन्तु मिटकर भी जो अमिट रहती है, वह है-संस्कृति । आचार्य तुलसी की दृष्टि में शिक्षा संस्कृति को परिष्कृत करने का एक अंग है । शिक्षा का सम्बन्ध आचरण के परिष्कार के साथ होना चाहिए । यदि आचरण परिष्कृत नहीं है तो संस्कृति का संरक्षण, हस्तान्तरण व विस्तार संभव नहीं है ।12 

आचार्य तुलसी की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण है- जिस शिक्षा के साथ अनुशासन, धैर्य, सहअस्तित्व आदि जीवन-मूल्यों का विकास नहीं होता, उस शिक्षा की जीवन-दृष्टि के आगे प्रश्न-चिन्ह उभर जाता है । अतः शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य है- जीवन मूल्यों को समझना, यथार्थ को जानना तथा उसे पाने की योग्यता हासिल करना ।13 

कवि ने जीवन में संस्कारों को जागरण का आयाम बताया और उसे सर्वोच्च स्थान का अधिकारी बताया, क्योंकि व्यक्तित्व का सम्यक् विकास संस्कारों पर ही निर्भर है, यथा-

जीवन में संस्कारों का, सबसे ऊँचा स्थान,
करता संस्कारी श्रमण, अपना अनुसंधान,
संस्कारों का जागरण, होता जहाँ प्रकाम,
खुलते रहते हैं, वहां, नये-नये आयाम ।14

आचार्य तुलसी ने सांस्कृतिक संधान पर आधारित शिक्षा-पद्धति का समर्थन किया, जहाँ बुद्धि के साथ हृदय का विकास हो व सर्वांगीण विकास का ध्येय बने । कवि के उक्त विचार इन पंक्तियों में दृष्टव्य हैं-

शिक्षा का नव अभियान हो 
बौद्धिकता के सरांगण में, भावों का सम्मान हो ।
सर्वांगीण विकास व्यक्ति का, विद्यार्जन का ध्येय बने ।
शारीरिक बल और बुद्धिबल, मानसबल आदेय बने ।
भावात्मक बल पर आधारित, संस्कृति का संधान हो ।15

तुलसी आचार्य ने आदर्श जीवन-शैली को अपनाने पर बल दिया, जिसमें सांस्कृतिक मूल्य विद्यमान रहें, आस्था ओर विश्वास में कमी न आए और नागरिक श्रद्धावान्, सहनशील, विचारशील, कर्मशील, व चरित्रवान् हों । इस हेतु उन्होंने अणुव्रत आन्दोलन का सूत्रपात किया। वर्तमान समय की स्थिति पर टिप्पणी करते हुए कहा- “मनुष्य असत् आचरण करता है, यह चिन्ता का विषय है । इससे भी बड़ी चिन्ता की बात यह है कि सदाचार से उसकी आस्था हिल गई है । इस प्रकम्पित आस्था को पुनः स्थिर करने के लिये नैतिकता और चरित्र-निष्ठा में विश्वास से ही आज की विषम समस्याओं से उत्पीड़ित जन-जीवन राहत पा सकता है ।16

आदर्श जीवन में समग्र का हित रखने वाला दृष्टिकोण आवश्यक है, क्योंकि एकाँगी चिन्तन स्वार्थ-पूर्ति तो करता है, परन्तु घातक होता है । इस मंतव्य को कवि ने निम्न पंक्तियों में प्रकट किया-

अपना ही वर्चस्व रहे,
एकांगी चिन्तन घाटक है ।
तेल-बिन्दु जल पर छाये,
वैसे छा जाना पातक है ।
क्षीर-नीर सम मिलना जाने,
वही सचेतन चातक है ।17

कवि ने ऐसी जीवन-शैली का परिचय दिया है जिसमें भेदभाव को स्थान न हो, वर्ण, लिंग, रंग, जाति, धन इत्यादि के आधार पर विभेद न हो । पंक्तियाँ अवलोकनीय हैं-

वर्ण जाति का भेद न जिसमें,
लिंग, रंग का छेद न जिसमें,
समता-शासन सत्य-धर्म की ।18

आचार्य तुलसी-साहित्य में नवीनता और प्राचीनता का, आस्था और तर्क का, धर्म और विज्ञान का जीवन मूल्य और सामयिक का समन्वय हुआ है । उनका स्पष्ट कथन है- “प्राचीनता में अनुभव, उपयोगिता, दृढ़ता और धैर्य का एक लम्बा इतिहास छिपा है, तो नवीनता में उत्साह, आकांक्षा, क्रियाशक्ति ओर प्रगति की प्रचुरता है । अतः अनावश्यक प्राचीनता को समेटते हुए आवश्यक नवीनता को पचाते जाना विकास का मार्ग है ।”19
कविवर आचार्य तुलसी ने आदर्श और यथार्थ पर आधारित नव-निर्माण पर जोर दिया, जिससे समाज व राष्ट्र प्रगति-पथ पर अग्रसर हो सकें । उक्त संदेश को व्यक्त करती ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-

शुद्धाचार विचार-भित्ति पर,
हम अभिनव निर्माण करें ।
सिद्धान्तों को अटल निभाते,
निज-पर का कल्याण करें ।20

कवि अपने आराध्य को सम्बोधित करते हुए वर्तमान समय में श्री श्रद्धा और तर्क के समन्वय की कामना कर रहे हैं । उक्त पंक्तियों में निहित संदेश दर्शनीय है-

तुम जनमें श्रद्धा के युग में,
हम हैं बौद्धिक-तार्किक युग में ।
श्रद्धा-तर्क समन्वयक का,
संगीत सुनाओ है ।21

उपर्युक्त संक्षिप्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि आचार्य तुलसी के काव्य में संस्कृति के संरक्षण, प्रसार और सामयिक दृष्टि का विशेष प्रयास हुआ है, जिसमें सांस्कृतिक चेतना लोगों में जाग्रत हुई और राष्ट्र की सांस्कृतिक गरिमा में वृद्धि हुई । इसका प्रमाण है- सैकड़ों जैनों-अजैनों का अणुव्रत-आन्दोलन से जुड़ना और उसका जीवन में रूपान्तरण करना । 
संदर्भ-
1. डॉ. रामजी उपाध्याय, भारतीय संस्कृति, पृ.17
2. क्या धर्म बुद्धिगम्य है? पृ. 58
3. डॉ. राजेन्द्र, आचार्य तुलसी का काव्य-साधना, पृ. 210
4. एक बूंद एक सागर, पृ.1680
5. तेरापंथ प्रबोध, पृ.108
6. भरत-मुक्ति, पृ.23
7. एक बूंद एक सागर, पृ.1403
8. नन्दन-निकुंज, पृ.47
9. माणक-महिमा, पृ.47
10. समणी कुसुमप्रज्ञा, आचार्य तुलसी साहित्यःएक पर्यवेक्षण, पृ.50
11. कालु यशोविलास, पृ.132
12. शासन-सुषमा, पृ.47
13. जैन भारती, 22 जून, 1986
14. सम्बोध, पृ.37
15. तेरापंथ प्रबोध, पृ.143
16. प्रवचन पाथेय, भाग-11, पृ.109
17. सम्बोध, पृ.122
18. शासन-सुषमा, पृ. 95
19. एक बूंदः एक सागर, पृ. 785
20. शासन-सुषमा, पृ.47
21. नन्दन निकुंज, पृ.3 

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