बावजी चतुरसिंहजी के काव्य में लोकनीति (सन्दर्भ- चतुर चिंतामणि)

बावजी चतुरसिंहजी के काव्य में लोकनीति
(सन्दर्भ- चतुर चिंतामणि)

लोकसाहित्य को जीवन के यथार्थ सपंदनों से ही प्रेरणा मिलती है। इसमें लाभ-हानि, यश-अपयश, उपयोगिता-अनुपयोगिता आदि का प्रश्न नहीं रहता। इसमें न भाषा का पांडित्य है, न कल्पना की कलात्मकता, बल्कि जीवन की सहजता की सहज अभिव्यक्ति ही होती है। विद्वानों की दृष्टि में लोक अनंत है, लोक असीम है। इसका भावलोक परत-दर-परत निरंतर खुलता जाता है, जिसके आगे विराम नहीं लगता। विश्वभर में जितने रूप लोक के हैं, उतने ही रूप लोकसाहित्य के हैं। लोकवाणी के भी उतने ही प्रकार हैं। लोक संवेदना की भी उतनी ही व्यापकता, विविधता है। लोक की भाषा ही लोकभाषा है। संपूर्ण लोक की सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, धार्मिक संवेदनाएं लोक भाषा में ही अभिव्यक्त और समाहित हैं। लोकसाहित्य लोक भाषा के बहुरंगी रूप-स्वरूप में ही वाणी देता है।

हिन्दी साहित्यकोश में ‘लोक’ को स्पष्ट करते हुए लिखा गया है- “लोक मनुष्य समाज का वह वर्ग है जो आभिजात्य संस्कार, शास्त्रीयता और पाण्डित्य की चेतना, पाण्डित्य के अहंकार से शून्य है और जो परम्परा के एक प्रवाह में जीवित रहता है।”1 वस्तुतः लोकतत्त्व की अर्थ-सीमा काफी विस्तृत है। इसके अन्तर्गत उन समस्त आचारों, विचारों, परम्पराओं, संस्कारों, रूढ़िगत बंधनों का समावेश हो जाता है, जिनका स्रोत लोकमानस है। जिनके परिमार्जन में संस्कृति की चेतना उपेक्षित नहीं होती। इसीलिए सांस्कृतिक चेतना के ज्ञान के लिए लोकजीवन को समझना आवश्यक रहता है। लोकजीवन में मानवीय व्यवहार का रेखांकन और उसकी सार्थकता हेतु लोकनीति का प्रभाव रहता है। सफल लोकजीवन हेतु लोकनीति का पालन अनिवार्य है। 

लोकप्रिय संतकवि बावजी चतुर सिंहजी न केवल राजस्थान, वरन भारत के एक लोकप्रिय लोक संत-कवि और निपुण योगी थे। उन्हें राजस्थान के पतंजलि और वाल्मीकि के रूप में याद किया जाता है।2 वीतरागी भक्त एवं महात्मा बावजी चतुरसिंह जी का मेवाड़ की भक्ति-परम्परा में उल्लेखनीय स्थान है। वे मेवाड़ की राज-परम्परा से जुड़े व्यक्तित्व होते हुए भी उदात्त-चिंतन, दार्शनिक दृष्टि एवं नीति-कथन की स्वाभाविकता से जन-सामान्य में बहुत लोकप्रिय थे। वे एक महान कवि होने के साथ-साथ एक प्रबुद्ध व्यक्तित्व थे। उनका जन्म सोमवार 9 फरवरी, 1880 (वि.सं. माघ कृष्ण 14, 1936) को करजाली हवेली में रानी कृष्णा कुँवर और करजाली के महाराज सूरत सिंह के यहाँ हुआ था।3 उनकी रचनाएँ आध्यात्मिक ज्ञान और लोक व्यवहार का संतुलित मिश्रण हैं। उनकी वाणी में लोकनीति का सटीक चित्रांकन दर्शनीय है। जीवन के रहस्य को सुलझाने में उनके पदों की वक्रता लोकमन के हृदय की अभिव्यक्ति प्रतीत होती है। 

बावजी चतुरसिंह जी ने राजस्थानी की उपबोली लोकभाषा ‘मेवाड़ी’ में अपने विचार प्रकट किए। उन्होंने  स्थानीय जनता की मातृभाषा में मानवता के आध्यात्मिक, सामाजिक और  सुधारवादी ज्ञान का प्रचार किया तथा गद्य और पद्य दोनों लिखे, जिन्हें समाज के सभी वर्गों द्वारा बड़ी श्रद्धा के साथ पढ़ा जाता है। लगभग सात वर्षों (1922-1929) की छोटी अवधि के दौरान रचित साहित्यिक रचनाओं में- अलख पच्चीसी, तुही अष्टक, अनुभव प्रकाश, चतुर प्रकाश, हनुमत्पंचक, अंबिकाष्टक, शेष-चरित्र, चतुर चिंतामणि, शिव महिम्ना स्तोत्र, चन्द्रशेखर स्तोत्र, श्री गीताजी, मानव मित्रः राम चरित्र, परमार्थ विचार, हृदय रहस्य, बाळकं री वार, बाळकं री पोथी, सांख्यकारिका, तत्त्व समास, योग-सूत्र आदि उल्लेखनीय हैं। इन कृतियों में ‘चतुर चिंतामणि’ के दोहे जन सामान्य में विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। इसमें छियालीस पद और तीन सौ चवहत्तर दोहे विनय, ज्ञान, नीति, वैराग्य एवं उपदेश आधारित हैं। कहीं-कहीं वीर रसात्मक पद भी आए हैं। 

‘चतुर चिंतामणि’ के पदों का लोकनीति की दृष्टि से विवेचन द्रष्टव्य है- 
लोकजीवन में धर्म की महिमा अनिर्वचनीय है। भारतीय जनमानस आध्यात्मिक मूल्यों को  सर्वोच्च स्थान देता है। कई बार वह धर्म के मूल मंतव्य को न समझकर रूढ़िवादी हो जाता है। अतः जीवन में  ज्ञान के साथ विवेक का होना आवश्यक है। इसके अभाव मानव का व्यवहार एकांगी हो जाता है। बावजी चतुरसिंह जी ने जनसामान्य को सन्देश देते हुए कहा कि संसार में अनेक धर्म हैं, सभी की उपासना पद्धति, कार्य-व्यवहार और व्यवहार पद्धति में भिन्नता है। लेकिन उक्त भिन्नता के बाद भी सभी धर्मों का एक ही उद्देश्य है-ईश्वर को जानना। यह उद्देश्य विवेक होने पर ही प्राप्त हो सकता है-
धरम धरम सब एक है, पण वरताव अनेक।
ईश जाणणो धरम है, जीरो पंथ विवेक॥4
यह विचार आज के समाज के लिए विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है, जहाँ धर्म और पंथ की उपासना पद्धतियाँ उसके मूल उद्देश्य से दूर हो गयी है। विवेक जीवन का अनिवार्य तत्त्व है। इसके  अभाव में किसी भी धर्म का पालन किया जाए तो उद्देश्य प्राप्त नहीं होगा। वे कहते हैं कि विद्यारूपी लता जीवन रूप वृक्षी से लिपटी हुई है। विद्यार्जन करना वृक्ष को जल सींचने के समान है। जिस प्रकार जल सींचने पर वृक्ष पर फल आते हैं। उसी प्रकार पढ़ने पर ही जीवन के उद्देश्य की प्राप्ति होती है। जीवन में सुख-दु:ख रूपी फल विद्यार्जन के आधार पर ही प्राप्त होती हैं-

विद्या विद्या वेल जुग, जीवन तरु लिपटात॥
पढिबौ ही जल सचिबौ, सुख दुख को फल पात॥5

लोक जीवन में मनुष्य जीवन की सफलता में उसके स्वभाव का बहुत योगदान है। बावजी चतुर सिंह जी कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति का स्वभाव भिन्न होता है। उसकी महानता उसके द्वारा किए गए कार्यों से प्रकट होती है। कवि ने तुलना करते हुए लिखा कि जिस प्रकार रँहट और चरखी दोनों घूमते हैं, लेकिन रँहट के घूमने से पानी फसल तक पहुँचता है और खेत हरा-भरा हो जाता है। दूसरी ओर चरखी के घूमने से गन्ने के छिलकों का ढेर तैयार हो जाता है-

रेंठ फरै चरक्यो फरै, पण फरवा में फेर।
वो तो वाड़ हरयौ करै, यो छूता रो ढेर।।6

अपने स्वभाव के साथ वाणी की महता लोक में व्यक्ति की उपस्थिति महनीय बनाती है। इसे रेखांकित करते हुए वे कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को बोलने से पहले यह तय करना चाहिए कि उसे किसी से क्यों बोलना है? कब बोलना है? कौन सी बात बोलनी है? व किसकी बात क्यों बोलनी है? इन सभी बातों का पहले मन में अच्छी तरह से विचार कर लेना चाहिए। फिर सारयुक्त बात करने से व्यक्ति की बात का महत्त्व बढ़ जाता है-

क्यू कीसू बोलू कठै, कूण कई कीं वार।
ई छै वातां तोल नै, पछै बोलणो सार॥7

लोकनीति में आत्मसम्मान को मानव का सबसे बड़ा धन माना गया है। बावजी चतुर सिंह जी ने नीतिगत संदेश दिया है कि बिना मान-मनुहार के पराये घर में पाँव नहीं रखना चाहिए, अन्यथा उसका सम्मान नहीं रहता। अपने इस विचार को रेल के इंजन और सिग्नल से जोड़ते हुए कहा कि  रेलगाड़ी के इंजन सिग्नल मिलने पर ही वह आगे बढ़ता है, उसी प्रकार आमंत्रण उपरान्त ही हमें पराये घर जाना चाहिए, तब हमारा सत्कार होगा।

पर घर पग नी मेळणों, वना मान मनवार। 
अंजन आवै देखनैं, सिंगल रो सतकार॥8

मन की बात हर किसी को कहने से प्रतिष्ठा को आघात पहुँचता है। उन्होंने संदेश दिया है कि अपने मन की बात हर किसी को नहीं बतानी चाहिए। जिस प्रकार पोस्टकार्ड हर किसी को अपना भेद बता देता है, और अपना मूल्य कम कर देता है, पर लिफाफा संबंधित व्यक्ति को ही अपनी बात कहता है। इससे उसकी महत्ता अधिक है। आशय यह है कि अपने मन की बात संबंधित या विश्वसनीय व्यक्ति को ही कहनी चाहिए। इस लोकनीति की व्यंजना कवि ने इस प्रकार की है-

कारट तो केतो फरै, हरकीनै हकनाक।
जीरो है वींनै कहै, हियै लिफाफो राख॥9

बिना नियोजित पहल से काम की सफलता प्राप्त नहीं होती। इस हेतु पहले उद्देश्य का निर्धारण होना चाहिए, बाद में योजना बनाकर कार्य को करना चाहिए। बावजी चतुरसिंह जी  कहते हैं कि इधर-उधर भटकने मात्र से भोग की प्राप्ति नहीं होती। उसके लिए पहले मूल स्थान अर्थात् ठिकाने का पता होना चाहिए। समझदार व्यक्ति पाँव रखने से पहले रास्ते को ध्यान से देखते हैं। अर्थात् किसी भी कार्य को करने से पहले उद्देश्य निर्धारित होना चाहिए, तब ही उसकी सफलता सुनिश्चित हो सकती है-

वी भटका भोगै नहीं, ठीक समझलै ठौर।
पग मेल्यां पेलां करै, गेला ऊपर गौर॥10


संतुलित आचरण सार्थक व्यक्तित्त्व का निर्माण करता है। लोकजीवन में किसी के प्रति अधिक मोह और किसी की उपेक्षा ठीक नहीं है क्योंकि किसी भी वस्तु की सार्थकता उसकी पर्याप्तता में है, कम या अधिकता में नहीं। वे कहते हैं कि कम देना भी अच्छा नहीं और अधिक देने से बेकार जाता है। जिस प्रकार अग्नि में कम ईंधन देने से पूरी तरह जल नहीं पाएगी और अधिक देने पर बेकार जाएगा। अतः आहार समुचित दिया जाना चाहिए-

ओछो भी आछो नहीं, वत्तो करै कार।
दैणों छावै देखनै, अगनी मुजब अहार॥11

लोक में वही व्यक्ति समझदार है जो मर्यादानुकुल आचरण करता है। वे कहते हैं कि जो अपनी मर्यादा से अनभिज्ञ रहते हैं, वे कई-कई बार व्यर्थ ही अपना समय गँवा देते हैं, दूसरी ओर समझदार व्यक्ति आँखों के इशारों से ही समझ लेता है और तदनुरूप अपना व्यवहार तय कर लेता है। अत: परिस्थिति एवं समय को शीघ्र भाँप लेना समझदार व्यक्ति का गुण है-

अपनी आण अजाणता, कईक कोरा जाय।
समझदार समझै सहज, आँख इशारा माँय॥12

मूर्ख व्यक्ति की संगत आपके पथ को भी विचलित कर सकती है, अतः लोक मान्यता यह है कि मूर्ख व्यक्ति की बातों पर भरोसा नहीं करना चाहिए। जो व्यक्ति मूर्ख व्यक्ति से पूछकर कार्य करता है, वह स्वयं भी अज्ञानी रह जाता है और अपना काम भी बिगाड़ देता है। कारण यह है कि मूर्ख व्यक्ति को कभी सही रास्ते की पहचान नहीं रहती है। अतः उसकी बात नहीं माननी चाहिए-

गेला नै जातो कहै, जावै आप अजाण।
गेला नै रवै नहीं, गेला री पैछाण॥13

जीवन की सार्थकता के लिए उद्देश्यनिष्ठ कार्यपद्धति अपेक्षित है, क्योंकि यह जीवन एक सड़क की भाँति है, जिस पर हम गाते हुए, रोते हुए, लड़ते हुए और प्यार करते हुए निकल रहे हैं। अब हमें इस सड़क पर अपने मनुष्य जीवन का अवलोकन भी कर लेना चाहिए कि हमने क्या किया? यह जीवनरूपी सड़क बिना उद्देश्य के पूरी न हो जाय, इस पर अवश्य विचार करना चाहिए।

गाता रोता नीकळ्या, लड़ता करता प्यार।
अणी सड़क रै ऊपरै, अब लख मनख अपार॥14

लोक में नीति के प्रसार हेतु नैतिक जीवन होना चाहिए। मनीषी का जीवन नश्वर है। संसार में जीवन की नश्वरता का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि गोखड़े (गवाक्ष) आदि यहीं खड़े रह गए, लेकिन उनमें से जो झाँकने वाले थे, वे सब चले गए। इसी प्रकार ताँगे यहीं खड़े रह गए और उसको हाँकने वाले सब चले गए। भाव यह है कि संसार की संपदा यहीं रह जाएगी और मनुष्य को एक दिन संसार से विदा होना ही है-

गोखड़िया खड़िया रया, कड़िया झांकणहार।
खड़खड़िया पड़िया रया, खड़िया हाकणहार॥15

संसार में जीवन शाश्वत नहीं है। लोकमन की इसी अभिव्यक्ति को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि जब रेल दौड़ती है तो वृक्ष उसके साथ दौड़ते हुए दिखाई देते हैं, किन्तु अंततः वे वहीं रह जाते हैं। इसी प्रकार मनुष्य जीवन के साथ शरीर का संबंध है। एक दिन यह शरीर भी चला जाएगा। उसकी स्थिति सूर्य की भाँति है जो सुबह उगता है और सायं को अस्त हो जाता है। यह शरीर भी उसी भाँति जन्म लेता है और मृत्यु को प्राप्त करता है-

रेल दौड़ती ज्यूं घणा, रूख दोड़ता पेख।
तन नै जातो जाण यू, दन नै जातो देख॥16

समग्रतः कहा जा सकता है कि चतुर चिंतामणि में  लोक व्यवहार की विसंगतियों पर प्रहार के साथ मानव-कल्याण का सन्देश सटीक दृष्टान्तों से दिया गया है। ये पद लोकनीति की दृष्टि से मानव-मूल्यों का गहन संवर्धन करते हैं। सामान्य लोकजीवन पर आधारित इन दोहों में मानव, संसार और जीवन के उद्देश्य को सैद्धांतिक तरीकों से समझने में मिलती है। इनकी सार्थकता वर्तमान में अधिक प्रासंगिक प्रतीत होती है। उनकी रचनाओं में ईश्वर ज्ञान और लोक व्यवहार का सुन्दर मिश्रण है। कठिन से कठिन ज्ञान तत्व को हमारे जीवन के दैनिक व्यवहारों के उदाहरणों से समझाते हुए सुन्दर लोक भाषा में इस चतुराई से ढाला है कि उनके विचार समकालीन सन्दर्भों में भी प्रासंगिक हैं

सन्दर्भ-
1. हिन्दी साहित्य कोश, भाग-1, पारिभाषिक शब्दावली, ज्ञानमंडल, वाराणसी, सं.1968, पृ. 591
2. बावजी चतुर सिंहजी, कन्हैयालाल राजपुरोहित, राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, सं.1996, पृ. 96 
3. गुमान ग्रंथावली, संस्करण. देव कोठारी, एलके व्यास, और डीएन देव, साहित्य संस्थान, राजस्थान  विद्यापीठ, उदयपुर, सं.1990, पृ. 281 
4. चतुर चिंतामणि, संपादक डॉ. मोतीलाल मेनारिया, राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, सं. 2000, पृ. 40
5. वही, पृ. 28
6. वही, पृ. 43
7. वही, पृ. 44
8. वही, पृ. 40
9. वही, पृ. 43
10. वही, पृ. 43
11. वही, पृ. 44
12. वही, पृ. 43
13. वही, पृ. 36
14. वही, पृ. 34
15. वही, पृ. 35
16. वही, पृ. 34

कबीर का साधना मार्ग

कबीर की साधना में ज्ञान, भक्ति और योग का अद्भुत समन्वय है। यह उपनिषदों में व्यक्त ज्ञान, नाद-अनुसंधान, योग और प्रभु की अनन्य भक्ति से परिपूर्ण है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का यह कथन उल्लेखनीय है- “कबीर की वाणी वह लता है जो योग के क्षेत्र में भक्ति का बीज पड़ने से अंकुरित हुई है।” आशय यह है कि कबीर का साधना मार्ग योग के क्षेत्र में भक्ति का बीज पड़ने तथा ज्ञान के जल से सींचने से पल्लवित हुआ है।
अतः कबीर का साधना मार्ग तीन वर्गों में विभक्त है- 1.ज्ञान मार्ग 2. योग मार्ग 3. भक्ति मार्ग। इनका संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है-
1.ज्ञान मार्ग 
भारतीय आध्यात्मिक चिंतन परम्परा में ज्ञान को बहुत महत्त्व दिया गया है। ज्ञान का अर्थ है- अद्वैत की अनुभूति, आत्मा के वास्तविक स्वरूप की अनुभूति और उसमें अवस्थित रहना। कबीर ने भी अपनी आध्यात्मिक साधना में ज्ञान को महत्त्व दिया। साधक को ज्ञान प्राप्त होने पर आत्मा-परमात्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है। आत्मा के परमात्मा बनने का मर्म शब्दातीत है। ज्ञान प्राप्ति पर ईश्वर का परिचय कबीर ने निम्न रूपक के माध्यम से किया है-
पाणीं ही तैं हिम भया, हिम ह्वै गया बिलाइ।
जो कुछ था सोइ भया, अब कछू कह्या न जाइ।।

कबीर शास्त्रीय ज्ञान का खंडन करके आत्म-ज्ञान की स्थापना करते हैं। उनकी दृष्टि में आत्मज्ञान ही ईश्वर भक्ति के निकट ले जाने का साधन है। ज्ञान इसलिए आवश्यक है कि संसार की नश्वरता और मानसिक संस्कारों का ज्ञान हो सके। कबीर के साधना मार्ग में ज्ञान के स्वरूप का वर्णन इस पद में विस्तार से किया है-
संतौं भाई आई ग्यान की आँधी रे।
भ्रम की टाटी सबै उडाँणी, माया रहै न बाँधी॥
हिति चित की द्वै थूँनी गिराँनी, मोह बलिंडा तूटा।
त्रिस्नाँ छाँति परि घर ऊपरि, कुबधि का भाँडाँ फूटा॥
जोग जुगति करि संतौं बाँधी, निरचू चुवै न पाँणी॥
कूड़ कपट काया का निकस्या,हरि की गति जब जाँणी॥
आँधी पीछै जो जल बूठा, प्रेम हरि जन भींनाँ।
कहै कबीर माँन के प्रगटे उदित भया तम षींनाँ॥

कबीर के मतानुसार ज्ञान की प्राप्ति होने पर आत्मा मोह की निद्रा से जाग जाती है। उस समय जब परम तत्त्व का दैदीप्यमान स्वरूप दिखाई देता है, वह अवर्णनीय है। वाणी के माध्यम से उसका अनुमान लगाना असंभव है। उसका सौन्दर्य अनिर्वचनीय है। जो उसका दर्शन करता है, वही उसे जान सकता है-
परब्रह्म के तेज का, कैसा है उनमान।
कहिबैं कूँ सोभा नहीं, देख्यां ही परवान।।

ज्ञानमार्गी साधना में आत्मा और परमात्मा के एकाकार होने का कबीर ने कई जगह वर्णन किया है। वे कहते हैं कि जब मैंने जब ज्ञान रूपी प्रकाश से वस्तुस्थिति को देखा, तो मेरा संपूर्ण भ्रम रूपी अंधकार नष्ट हो गया। अहंकार और अज्ञानता के कारण मैं अब तक परमात्मा से दूर रहा, लेकिन जैसे ही यह विलीन हुआ, मुझे परमात्मा का साक्षात्कार हो गया-
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहीं।
सब अंधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या मांही।।

कबीर ने पुस्तकीय ज्ञान को अस्वीकार कर अनुभूति परक ज्ञान को महत्त्व दिया। वे यह मानते थे कि शास्त्र ज्ञान मनुष्य को भ्रमित करते हैं-
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय।।

कबीर के विपुल साहित्य में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि उनकी अद्वैत अनुभूति का आधार उपनिषद अथवा भारतीय चिंतन परम्परा में वर्णित ज्ञान था। कबीर पर शंकर के अद्वैत का प्रभाव है, लेकिन उपनिषद के तथ्यों से भी पूर्णतः प्रभावित हैं। वृहदारण्यक उपनिषद में ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का प्रभाव उनके पदों में दिखाई देता है-
हरि मरिहैं तो हमहु मरिहैं,
हरि न मरैं हम काहे कू मरिहैं।।

2. योग मार्ग
कबीर की साधना में योग भी परमात्मा को प्राप्त करने का एक मार्ग था। यह योग मार्ग हठयोगियों और नाथ पंथियों के समान कष्ट साध्य नहीं था। इसमें आसन, प्राणायाम, मुद्रा, बंध आदि पर जोर नहीं था। राजयोगियों के समान संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात समाधि का स्थान भी कबीर के योग में नहीं था और न ही शृंगी, चिमटा आदि बाह्य  उपकरणों की आवश्यकता भी। कबीर ने सिद्धि इत्यादि के प्रदर्शन और बाह्य आडम्बरों से दूर रहने को ही श्रेयस्कर माना। उनके योग में जो आदर्श स्थिति थी, उसका वर्णन करते हुए उन्होंने कहा-
अवधू जोगी जग थैं न्यारा; 
मुद्रा निरति सुरति करि सींगी, नाद न षंडै धारा॥
बसै गगन मैं दुनीं न देखै, चेतनि चौकी बैठा।
चढ़ि अकास आसण नहीं छाड़ै, पीवै महा रस मीठा॥
परगट कंथाँ माहैं जोगी दिल मैं दरपन जीवै।
सहँस इकीस छसै धागा, निहचल नाकै पीवै॥
ब्रह्म अगनि मैं काया जारै, त्रिकुटी संगम जागै।
कहै कबीर सोई जोगेश्वर, सहज सुंनि ल्यौ लागौ॥

इस पद से स्पष्ट होता है कि कबीर बाह्य उपकरणों यथा- शारीरिक आसन, मुद्रा, प्राणायाम, धूनी लगाना, तीर्थ व्रत और कृत्रिम ध्यान इत्यादि के पक्ष में नहीं थे। इन सबका योग में आध्यात्मिक अर्थ था। उन्होंने योग-विधि का निरूपण करते हुए योग को स्पष्ट किया, जिसमें सुरति-निरति, अनाहत नाद, अजपा-जाप, मन-उनमन, षट चंक्र, सहस्रार चक्र, कुंडलिनी, सहज समाधि आदि शब्दावली प्रयुक्त हुई है। इन शब्दों के विवेचन से कबीर के योग मार्ग को समझा जा सकता है-
सुरति-निरति :
कबीर के योग को समझने के लिए सुरति-निरति शब्द को समझना आवश्यक है। इस शब्द पर अनेक मत सामने आए हैं किन्तु कबीर के पदों से इसका तात्पर्य स्पष्ट हो जाता है। ‘सुरति’ शब्द का अर्थ है- “किसी पदार्थ में इतने रस, इतने आनंद का अनुभव करना कि चित्त की चंचलता, चित्त का क्षोम शांत हो जाय।” आशय यह है कि चित्तवृति सांसारिक विषयों की ओर प्रवाहित रहती है, जब वह ईश्वरोन्मुख हो जाती है तो उसे ‘सुरति’ कहते हैं। 
‘निरति’ संपूर्ण तन्मयता की स्थिति है। पं.हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार समस्त बाह्य भ्रम-जाल से निरत होकर अन्तर्मुख होने की प्रवृत्ति ‘निरति’ है। निरति का अर्थ है- ‘पूर्ण रूप से रति’। ‘निरति’ ‘सुरति’ की चरमावस्था है, सुरति की पूर्णावस्था है, निरालम्ब है, सहज स्थिति है। गोरखबानी में सुरति को ‘साधन’ और निरति को ‘सिद्धि’ कहा गया है।
कबीर ने सुरति-निरति का शब्द का प्रयोग इसी भाव से करते हुए कहा-
सुरति समानी निरति में, निरति रही निरधार।
सुरति निरति परचा भया, तब खुले स्यंभ दुआर।।

साधक चित्तवृत्ति को अन्तर्मुखी करके निरति में लीन कर सकता है। उसके बाद सिंहद्वारा खुलता है और शिवत्व की प्राप्ति होती है। कबीर ने इसकी पुष्टि करते हुए शून्य में समाने की बात कही है-
उलटे पवन चक्र षट बेधा, सुन्नि सुरति सौ लागि।
सुन्नहि सुरति समानिया, कांसो कहिए जागि।।

2. अनाहतनाद :
संसार में कानों के माध्यम से जो नाद सुनाई पड़ता है, वह ‘आहतनाद’ है। यह नाद ध्वनि-अवयवों से टकराने से उत्पन्न होता है। जब तक साधक की वृत्ति बहिर्मुखी होती है, तब तक वह  आहतनाद ही सुन सकता है, किन्तु जब उसकी वृत्ति अन्तर्मुखी हो जाती है तो उसे ‘अनाहतनाद’ सुनाई पड़ता है। योग साधना की शब्दावली में यह ‘नादानुसंधान’ कहलाता है। 
चित्तवृत्ति के अन्तर्मुखी होने पर आरंभ में जो अन्तर्लोक में   अनेक प्रकार की आकर्षक ध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं, वे वास्तविक अनाहत ध्वनियाँ नहीं हैं। वे साधक का ध्यान विचलित करने के लिए उसे अपनी ओर आकृष्ट करती हैं। इनके आकर्षण से अपने को मुक्त करके योगी साधक अपना ध्यान हृदय के अन्तर्तम प्रदेश में लीन करता है। अनाहत चक्र ही अनाहतनाद का केन्द्र है। अपनी अन्तर्मुखी चेतना को अनाहत चक्र में लीन करके योगी उस ‘शब्द ब्रह्म’ का अनुभव करता है, जो समग्र विश्व में अखण्ड रूप में व्याप्त है। 
कबीर के अनुसार ज्ञान की तरंग में मग्न होने पर सांसारिक तृष्णा का शमन होना आवश्यक है। उसके पश्चात् ही लोकातीत अनाहत शब्द में साधक का मन लीन होता है-
अवधू ग्यान लहरि धुनि मांडी रे।
सबद अतीत अनाहत राता, इहि विधि त्रिष्णा बाड़ी।।

3. इड़ा-पिंगला-सुषुम्ना :
मानव शरीर के भीतर बहुत-सी सूक्ष्म नाड़ियाँ हैं, जिनमें वायु का प्रसरण होता है। ये लगभग 72000 की संख्या में हैं। इनमें से तीन नाड़ियाँ मुख्य हैं- इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। इड़ा का दूसरा नाम है सूर्य और पिंगला का चन्द्र। सुषुम्ना अग्नि की प्रतीक है। 
इड़ा-पिंगला नाड़ियाँ दाहिनी ओर से बांयी ओर होती हुई मेरुदण्ड से ऊपर की ओर जाकर दोनों भौंहों के मध्य मिलती हैं। इनका सूर्य और चन्द्र नाम प्रतीकात्मक है। इड़ा प्राणवायु की वाहिनी है जबकि पिंगला अपान वायु की। प्राण अपान पर अधिकार होने से योगी कालातीत हो जाता है। 
सुषुम्ना नाड़ी मेरुदण्ड के भीतर से ऊपर की ओर जाती है और दोनों भौहों के मध्य मिलती है। तीनों ही नाड़ियों का संगम स्थल ‘त्रिकुटी’ कहलाता है। कबीर ने इसका वर्णन करते हुए लिखा-
झीनी झीनी बीनी चदरिया।
काहे कै ताना काहे कै भरनी,
कौन तार से बीनी चदरिया।।
इड़-पिंगला ताना भरनी,
सुषमन तार से बीनी चदरिया।।

4. षटचक्र :
योग-साधना में षट चक्रों की स्थिति का वर्णन आता है। सुषुम्ना के मार्ग में मुख्यतः छह चक्र हैं। सबसे नीचे ‘मूलाधार चक्र’ है, जो गुदा और लिंग के मध्य स्थित है। दूसरा ‘स्वाधिष्ठान चक्र’ है, जो लिंगमूल में स्थित है। तीसरा ‘मणिपुर चक्र’ नाभि मूल में स्थित है। चौथा ‘अनाहत चक्र’ हृदय के पास है। पाँचवाँ ‘विशुद्ध चक्र’ कंठ में स्थित है। छठा ‘आज्ञा चक्र’ दोनों भौहों के मध्य स्थित है। इन चक्रों में ‘दल’ होते हैं, जिन्हें ‘कमल’ भी कहा जाता है। 
कबीर ने कहा कि साधक शिकारी जब छह चक्रों का भेदन कर लेता है तो ज्ञान की अग्नि प्रज्वलित हो जाती है और विषय-विकारों का नाश हो जाता है- 
षट् चक्र कँवल बेधा, जारि उजारा कीन्हां।
काम क्रोध लोभ मोह, हाँकि स्यावज दीन्हां।।

5. सहस्रार चक्र :
षटचक्र शरीर के भीतर होते हैं परन्तु एक चक्र शून्य में अवस्थित है, वह ‘सहस्रार चक्र’ है। कबीर ने इसे ‘गगन मण्डल’ कहा है। इसे शून्यमण्डल, ब्रह्मरंध्र, निर्वाणचक्र इत्यादि नामों से भी जाना जाता है। इसमें शक्ति की सहस्र किरणें हैं, अतः इसे सहस्रदल भी कहा जाता है। यह अखण्ड रूप में ब्रह्मांड में व्याप्त है। कबीर ने कहा-
उलटे पवन चक्र वेधा, मेरुदंड सरपूरा।
गगन गरजि मन सुनि समाना, बाजे अनहद तूरा।।

6. कुंडलिनी :
यह एक प्रकार की शक्ति है, जो मूलाधार चक्र के अधोभाग में स्थित है। यह सुषुम्ना का द्वार अवरुद्ध कर सर्पिणी की भाँति सोई हुई है। इड़ा और पिंगला नाड़ियों पर बहते हुए प्राण और अपान जब योग द्वारा एकीभूत हो जाते हैं, तब कुंडलिनी सुषुम्ना में प्रवेश करती है और अनाहत नाद की अभिव्यक्ति होती है।कबीर ने इस स्थिति का वर्णन करते हुए लिखा-
त्रिकुटी महल में विद्या सारा, घनहर गरजें बजे नगारा ।
लाला बरन सूरज उजियारा, चतुर कंवल मंझार सब्द ओंकारा है ॥
 
7. मन-उनमन :
मन का स्वभाव है- तरह-तरह से विकल्पों को उठाना। जब तक साधक के मन में विकल्प की तंरगे उठती रहेंगी, वह परम पद का साक्षात्कार नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में उसे अपने मन पर नियंत्रण करना आवश्यक है। मन को निश्चल बनाकर, सांसारिक विषयों से विमुख कर दिव्य-चेतना में लय कर देना ‘उनमन’ है।
उनमन अवस्था में मन की सारी चंचलता समाप्त हो जाती है। जब मन ‘उनमन’ में लगता है, तब उसी में लीन हो जाता है, जैसे नमक पानी में घुलता है-
मन लागा उनमन सौं, उनमन मनहिं विलंग।
लूँण विलंगा पांणियां, पाणी लूंण विलंग।।

इस स्थिति के प्राप्त होने पर मन का पूर्णतः आध्यात्मीकरण हो जाता है। वह शुद्ध और परिष्कृत होकर शून्यावस्था तक पहुँच जाता है-
मन लागा उनमन सौं, गगन पहूँचा जाय।
8. अजपा जाप :
सामान्यतः संत साधक अपने आराध्य का नाम जिह्वा से उच्चारित करते हैं। यह नामजप की आरंभिक अवस्था है। साधना की उच्चतर स्थिति में पहुँचने पर नाम-जाप साधक का संस्कार बन जाता है। यह प्रक्रिया उसकी श्वास-प्रश्वास क्रिया के साथ निरंतर चलती रहती है। योगी उसे ‘अजपा जाप’ कहते हैं-
राम-नाम कबीर का बीज मंत्र है। इसके अजपा-जाप (सुमिरन) से कुंडलिनी जाग्रत होती है और वह सहस्रार में चढ़ती हैं कबीर के अनुसार जप की परिणति अजपा में होती है-
सुरति समांनी निरति में, अजपा माहैं जाप।
लेख समानां आलेख में, यो आपा माहें आप।।

कबीर माला लेकर जप करने में विश्वास नहीं करते थे। बिना उच्चारण किए श्वास-प्रश्वास के साथ राम का सुमिरण ही कबीर का अजपा जाप है-
कबीर पढ़िबा दूरि करि, पुस्तक देइ अहाइ।
बावन आषिर सोधि करि, ररैं ममैं चित लाइ।।

अतः ‘ररैं-ममैं’ - राम में प्रीति से चित्त लगाये रहना कबीर का अजपाजाप है।
9. सहज समाधि :
परमपद ब्रह्म की एक सहज अवस्था है। वह शून्य, निर्गुण, देश काल से अतीत है। जब योग द्वारा चित्त और प्राण का लय हो जाता है, तब उस अवस्था का अनुभव होता है, वह सहज समाधि है। इस स्थिति के बाद मन विषयों से विमुक्त हो जाता है, उसे सांसारिक आकर्षण मुग्ध नहीं करते। मन परमात्मा के रस में डूबा रहता है, समस्त साधना पूर्ण हो जाती है और चित्त सदा के लिए एकाकार हो जाता है। सहज समाधि प्राप्त होने पर साधक की स्थिति कुछ इस प्रकार हो जाती है-
लाली मेरे लाल की, जित देखूँ तित लाल।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।।

कबीर का योग ‘सहज’ है, अर्थात् क्लिष्ट नहीं है। प्रभु में अनन्य प्रेम से, निरन्तर सुमिरण से अजपाजाप से ‘सहज’ स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है। कबीर के मतानुसार सहज, उनमन, तुरीय, रामरस सब एक ही स्थिति के प्रतीक हैं-
उनमन मनुवा सुन्नी समाना, दुविधा दुर्गति भागी।
कह कबीर अनुभौ इक देख्या, रामनाम लिव लागीं।।

कबीर का मन रात दिन सहज रूप में साधना में लीन रहता है। कबीर की मौलिकता यह है कि वह साधना को सहज दिनचर्या का अंग बना लेते हैं-
सहज सहज सब कोय कहै, सहज न चीन्हे कोय।
जिहि सहजै सो हरि मिलै, सहज करावै सोय।।


3.भक्ति मार्ग
आध्यात्मिक प्रेम का नाम भक्ति है। यह प्रेमाभक्ति नारद भक्ति सूत्र के अनुसार विषय त्याग, कुसंग त्याग, अखण्ड सुमिरण, गुण कीर्तन आदि से प्राप्त होती है। 
कबीर के ब्रह्म निर्गुण, वर्णनातीत और शब्दातीत हैं। ऐसे ब्रह्म की साधना केवल ज्ञान के माध्यम से ही संभव है। कबीर ने ज्ञान की सार्थकता सत्य को पहचानने के लिए की और, मार्ग भक्ति को चुना। कबीर के बारे में नाभादास ने कहा- “वे भक्ति विमुख धर्म साधनों को अधर्म मानते थे।” कबीर ने अपनी भक्ति को भाव-भक्ति कहा। जिसका तात्पर्य है- परम तत्त्व की भावमय साधना। कबीर ने अपनी भक्ति को प्रेमाभक्ति माना। वे मानते थे कि जो भाव-भक्ति के माध्यम से हरि की साधना नहीं करता है, उसे मुक्ति नहीं मिल सकती-
भाव भगति सु हरि न अराधा।
जनम मरण की मिटी न साधा।।

कबीर की भक्ति में माधुर्य भाव का समावेश है। भक्ति में भाव-विभोर होकर आत्मा और परमात्मा के पारस्परिक वियोग का भाव विभोर वर्णन किया-
आंखड़ियाँ झांई परि, पंथ निहारि-निहारि।
कबीर की भक्ति में नारद-भक्ति-सूत्र में वर्णित समस्त आसक्तियों का वर्णन मिलता है। उन्होंने स्वयं कहा-
भक्ति नारदीय मगन सरीरा।
इह विधि भव तरि कहे कबीरा।।

नारद-भक्ति-सूत्र के अनुसार ईश्वर के प्रति प्रेम की व्यंजना ग्यारह आसक्तियों में हो सकती हैं- 1. गुणमाहात्म्य भक्ति, 2. रूपा भक्ति, 3. पूजा भक्ति, 4. स्मरणा भक्ति, 5. दास्या भक्ति, 6. संख्या भक्ति, 7. वात्सल्या भक्ति, 8. कान्ता भक्ति, 9. आत्मनिवेदन भक्ति, 10 तन्मया भक्ति और 11. परम विरहा भक्ति।
श्रीमद्भागवत् में भक्ति के नौ छंद बताये गये हैं, जिसे नवधा भक्ति कहा गया है।
श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, संख्य, दास्य एवं आत्मनिवेदन। जिसे निम्न रूपों में भी व्यक्त किया जा सकता है-
श्रवणं कीर्तनं विष्णो स्मरणं पादसेवनं।
अर्चनं वंदनं दास्यं सख्यं आत्मनिवेदनं।।

यदि ध्यान से देखा जाय तो नवधा भक्ति के वे नौ प्रकार नारदीय भक्तिसूत्र में समाहित किये जा सकते हैं। कबीर ने यद्यपि शास्त्रीय पद्धति से नारद-भक्ति-सूत्र की इन आसक्तियों का वर्णन नहीं किया है। फिर भी ईश्वर के प्रति प्रेम सम्बन्ध स्थापित किया है। 
1. गुणमाहात्म्य शक्ति :
सात समंद कि मसि करूँ, लेखनि सब बनराई।
धरती सब कागद करूँ, तउ हरिगुण लिख्या न जाई।।

2.रूपा भक्ति :
यद्यपि कबीर की भक्ति रूप ब्रह्म के प्रति नहीं थी, फिर भी एक स्थल पर कहा है-
साँवल सुन्दर रमइया मेरा मन लागा तोहि।
3.स्मरण भक्ति :
मेरा मन सुमिरै राम कूँ, मेरा मन रामहि आहि।
4.पूजा भक्ति :
मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जानि।
दसवाँ द्वारा देहुरा, तामै ज्योति छिपानी।।

5.दास्य भक्ति :
कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाऊ।
गले राम की जेवड़ी, जित खैचे तित जाऊ।।

6.सख्य भक्ति :
पानी हूँ तै पातरा, धुवाँ हूँ तै झीन।
पवना बेगि उतावला, सो दोस्त कबीरै मीन।।

7.वात्सल्य भक्ति :
हरि जननी मैं बालक तेरा, काहे न अवगुन बकसहु मेरा।
सुत अपराध करै दिन केते, जननी कै चित रहै तेते।।


8.कान्ता भक्ति :
हरि मोर पिउ मैं हरि की बहुरिया।
9.आत्मनिवेदन भक्ति:
मेरा मुझमें कछु नहीं, जो कुछ है सो तेरा।
तेरा तुझको सौंपता, क्या लागे मेरा।।

10.तन्मया भक्ति :
तूँ तूँ करता तूँ भया, मुझमें रही न रहूँ।
बारी तेरी बलि गई, जित देखौ तित तूँ।।

11.परम विरहा भक्ति :
नैना नीझर लाइयां, रहट बहै निसि जाम।
पपिहा ज्यों पिउ-पिउ कर, कब रे मिलहुगे राम।।

आसक्तियों के इन विभिन्न रूपों में कबीर ने सबसे अधिक तल्लीनता कान्ता भक्ति में दिखाई है। ईश्वर के प्रति प्रेम की इस आध्यात्मिक प्रेम को कबीर ने अकथ कहानी कहा है-
अकथ कहाणी प्रेम की कछु कहि न जाई।
वस्तुतः प्रेम के विभिन्न रूपों में दाम्पत्य प्रेम में जितनी निकटता और दर्द की अनुभूति होती है, उतनी किसी अन्य प्रेम में नहीं। विशेषतः स्वप्रिया भाव के प्रेम में जितनी गम्भीरता होती है। उतनी स्वप्रिया भाव में नहीं, इसलिये कबीर ने दाम्पत्य प्रेम को अपनाया है और अपने को बहुरिया मानकर ईश्वर रूपी प्रियतम के प्रति मिलन और वियोग की भावनाओं की अत्यन्त विह्वल और मार्मिक व्यंजना की है। प्रेम की दो स्थितियाँ होती हैं- एक मिलन और दूसरा वियोग। कबीर ने संयोग का वर्णन भी किया है। उनके संयोग वर्णन में विह्वलता है-
अब तो ही जान देहु रामपियारे, जू भावै सिद्ध होय हमारै।
बहुत दिनन थे प्रीतम आये, भाग बड़े घर बैठे आये।।

मध्ययुगीन अन्य भक्त कवियों की तरह कबीर ने विरह को अधिक महत्व दिया है क्योंकि उनकी दृष्टि में रुदन ही प्रियतम को पाने का मार्ग है-
हँसि-हँसि कंत न पाइये, जिहि पाया तिनि रोय।
जो हँसि हँसि के हरि मिलै तो नहीं दुहागिन कोय।।

जो सच्चा साधक है वह विरह को स्वेच्छा से स्वीकार करता है- 
विरह भुअंम पैसि करि, किया कलेजे घाव।
साधु अंग न मोड़ही ज्यूँ भावै तिऊ खाव।।

कबीर ने ईश्वर रूपी प्रियतम के प्रति अपनी विरहानुभूतियों की अत्यन्त मार्मिक व्यंजना की है। वे अपने शरीर रूपी दीपक में प्राणों की बाती लोहू का तेल डालकर उससे उत्पन्न प्रकाश में अपने प्रियतम को देखना चाहते हैं। रात की बिछुड़ी चकई दिन में प्रियतम से मिल जाती है। लेकिन कबीर का विरह दुख उससे भी बड़ा है, क्योंकि उन्हें उनका मिलन कभी नहीं होता। 
चकई बिछुरी रैनि परि, आई मिलै परभाति।
जे नर बिछुरे राम सो, ते दिन मिले न राति।।

विरह की अनेक अन्तर दशाएँ होती हैं। जैसे- अतृप्ति, लालसा, पश्चाताप, विवशता, शंका स्मृति, हर्ष, उन्माद आदि। यद्यपि कबीर ने राष्ट्रीय पद्धति से इन दशाओं का वर्णन नहीं किया है। लेकिन इन दशाओं का सम्बन्ध मानवीय संवेगों से है। अत्यन्त सहज रूप में इनकी अभिव्यक्ति इनके काव्यरूप में हो गई है। जैसे-
व्याकुलता :
वासर सुख न रैन सुख ना सुख सुपिनें माहि।
कबीर बिछुरे राम सु, ना सुख धूप न छाँव।।

विस्मृतियाँ :
हरि रस पिया जानिए, जे उतरै नाहि खुमारि।
मैंमंता घूमत फिरै, नाहि तन की सारि।।

   (ग)व्याधि की दशा :
आँखड़िया झाँई परी, पंथ निहारि निहारि।
जीभड़िया छाल्या पड्या, राम पुकारि पुकारि।।

कबीर की दृष्टि में भक्ति साधना अत्यन्त कठिन है। इस भक्ति के मन्दिर में वही प्रवेश कर सकता है जो अपने सर को काट कर अपने हाथ में लेने जैसी साधना करे।
कबीर यहु घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं।
सीस उतारै हाथ सो, तब पैसे घर माहि।।

कबीर ने इसलिये सच्चे भक्त के लिये सूरवीर और सती नारी के उपमान का प्रयोग भर किया है। भक्ति के कठिन मार्ग पर चलने के लिये कबीर ने कुछ शर्तों को व्यक्त किया है। इसके लिये सबसे आवश्यक शर्त हैं ईश्वर के प्रति अनन्यता (एकाग्रता)। यह अनन्यता (एकाग्रता) वैसी ही होनी चाहिए जैसे सीप को स्वाति की  बूँद के लिए होती है-
कबीर सीय समंद की रटै पियास पियास।
समदहि तिनका वारि गिनै, एक स्वाति बूँद की आस।।

दूसरी शर्त है-निष्काम भक्ति। नारद-भक्ति-सूत्र में भी भक्ति को निष्काम बताया गया है। कबीर भी कहते हैं-
जब लगि भगति सकामता तब थल निष्काम सेव।
कहे कबीर वे क्यू मिले निहि कामी निज देव।।

तीसरी शर्त है-काम, क्रोध, लोभ, मोह, कपट, अभिमान आदि भू विकृतियों का परित्याग। भक्ति के लिये ये अत्यन्त आवश्यक हैं। कबीर कहते हैं-
भगति बिगाड़ी कामिया इन्द्रिय करै स्वादि।
हीरा खोया हाथ तै, जनमि गंवाया बाधि।।

कबीर ने ज्ञान, योग तथा भक्ति तीनों के लिये गुरु और सत्संग को बहुत महत्व दिया। कबीर की दृष्टि में गुरु गोविन्द से भी बड़ा है, क्योंकि यह गोविन्द तक पहुँचने की दृष्टि देता है-

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काकै लागू पाय।
बलिहारी गुरु आपनै गोविन्द दियो बताय।।


इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कबीर की साधना में ज्ञान, योग और भक्ति तीनों ही समाविष्ट हैं।
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